Poems about nature in hindi shares beautiful words about nature. These Hindi poems describe the beauty of landscapes and the world around us. Enjoy the simple and lovely verses that bring nature to life in your mind.
प्रकृति पर कविताएं” bring the eloquence of nature to life through vivid verses. In these “प्रकृति पर कविताएं,” the beauty of nature unfolds in poetic expressions. Dive into the world of Hindi poetry, where “prakriti par poems” enchantingly capture the essence of the natural world, creating a lyrical celebration of its wonders.
Poems about Nature in Hindi – संभल जाओ ऐ दुनिया वालो
संभल जाओ ऐ दुनिया वालो
वसुंधरा पे करो घातक प्रहार नही !
रब करता आगाह हर पल
प्रकृति पर करो घोर अत्यचार नही !!
लगा बारूद पहाड़, पर्वत उड़ाए
स्थल रमणीय सघन रहा नही !
खोद रहा खुद इंसान कब्र अपनी
जैसे जीवन की अब परवाह नही !!
लुप्त हुए अब झील और झरने
वन्यजीवो को मिला मुकाम नही !
मिटा रहा खुद जीवन के अवयव
धरा पर बचा जीव का आधार नहीं !!
नष्ट किये हमने हरे भरे वृक्ष,लताये
दिखे कही हरयाली का अब नाम नही !
लहलाते थे कभी वृक्ष हर आँगन में
बचा शेष उन गलियारों का श्रृंगार नही !
कहा गए हंस और कोयल, गोरैया
गौ माता का घरो में स्थान रहा नही !
जहाँ बहती थी कभी दूध की नदिया
कुंए,नलकूपों में जल का नाम नही !!
तबाह हो रहा सब कुछ निश् दिन
आनंद के आलावा कुछ याद नही
नित नए साधन की खोज में
पर्यावरण का किसी को रहा ध्यान नही !!
विलासिता से शिथिलता खरीदी
करता ईश पर कोई विश्वास नही !
भूल गए पाठ सब रामयण गीता के,
कुरान,बाइबिल किसी को याद नही !!
त्याग रहे नित संस्कार अपने
बुजुर्गो को मिलता सम्मान नही !
देवो की इस पावन धरती पर
बचा धर्म -कर्म का अब नाम नही !!
संभल जाओ ऐ दुनिया वालो
वसुंधरा पे करो घातक प्रहार नही !
रब करता आगाह हर पल
प्रकृति पर करो घोर अत्यचार नही !!
डी. के. निवातियाँ
Poems in Hindi on Nature – रह रहकर टूटता रब का कहर
रह रहकर टूटता रब का कहर
खंडहरों में तब्दील होते शहर
सिहर उठता है बदन
देख आतंक की लहर
आघात से पहली उबरे नहीं
तभी होता प्रहार ठहर ठहर
कैसी उसकी लीला है
ये कैसा उमड़ा प्रकति का क्रोध
विनाश लीला कर
क्यों झुंझलाकर करे प्रकट रोष
अपराधी जब अपराध करे
सजा फिर उसकी सबको क्यों मिले
पापी बैठे दरबारों में
जनमानष को पीड़ा का इनाम मिले
हुआ अत्याचार अविरल
इस जगत जननी पर पहर – पहर
कितना सहती, रखती संयम
आवरण पर निश दिन पड़ता जहर
हुई जो प्रकति संग छेड़छाड़
उसका पुरस्कार हमको पाना होगा
लेकर सीख आपदाओ से
अब तो दुनिया को संभल जाना होगा
कर क्षमायाचना धरा से
पश्चाताप की उठानी होगी लहर
शायद कर सके हर्षित
जगपालक को, रोक सके जो वो कहर
बहुत हो चुकी अब तबाही
बहुत उजड़े घरबार,शहर
कुछ तो करम करो ऐ ईश
अब न ढहाओ तुम कहर !!
अब न ढहाओ तुम कहर !!
धर्मेन्द्र कुमार निवातियाँ
प्रकृति पर कविता – लाली है, हरियाली है
लाली है, हरियाली है,
रूप बहारो वाली यह प्रकृति,
मुझको जग से प्यारी है।
हरे-भरे वन उपवन,
बहती झील, नदिया,
मन को करती है मन मोहित।
प्रकृति फल, फूल, जल, हवा,
सब कुछ न्योछावर करती,
ऐसे जैसे मां हो हमारी।
हर पल रंग बदल कर मन बहलाती,
ठंडी पवन चला कर हमे सुलाती,
बेचैन होती है तो उग्र हो जाती।
कहीं सूखा ले आती, तो कहीं बाढ़,
कभी सुनामी, तो कभी भूकंप ले आती,
इस तरह अपनी नाराजगी जताती।
सहेज लो इस प्रकृति को कहीं गुम ना हो जाए,
हरी-भरी छटा, ठंडी हवा और अमृत सा जल,
कर लो अब थोड़ा सा मन प्रकृति को बचाने का।
नरेंद्र वर्मा
Hindi Kavita on Nature – प्रकृति से प्रेम करें
आओ आओ प्रकृति से प्रेम करें,
भूमि मेरी माता है,
और पृथ्वी का मैं पुत्र हूं।
मैदान, झीलें, नदियां, पहाड़, समुंद्र,
सब मेरे भाई-बहन है,
इनकी रक्षा ही मेरा पहला धर्म है।
अब होगी अति तो हम ना सहन करेंगे,
खनन-हनन व पॉलीथिन को अब दूर करेंगे,
प्रकृति का अब हम ख्याल रखेंगे।
हम सबका जीवन है सीमित,
आओ सब मिलकर जीवन में उमंग भरे,
आओ आओ प्रकृति से प्रेम करें।
प्रकृति से हम है प्रकृति हमसे नहीं,
सब कुछ इसमें ही बसता,
इसके बिना सब कुछ मिट जाता।
आओ आओ प्रकृति से प्रेम करें।
नरेंद्र वर्मा
Hindi Poems on Environment – वन, नदियां, पर्वत व सागर
वन, नदियां, पर्वत व सागर,
अंग और गरिमा धरती की,
इनको हो नुकसान तो समझो,
क्षति हो रही है धरती की।
हमसे पहले जीव जंतु सब,
आए पेड़ ही धरती पर,
सुंदरता संग हवा साथ में,
लाए पेड़ ही धरती पर।
पेड़ -प्रजाति, वन-वनस्पति,
अभयारण्य धरती पर,
यह धरती के आभूषण है,
रहे हमेशा धरती पर।
बिना पेड़ पौधों के समझो,
बढ़े रुग्णता धरती की,
हरी भरी धरती हो सारी,
सेहत सुधरे धरती की।
खनन, हनन व पॉलीथिन से,
मुक्त बनाएं धरती को,
जैव विविधता के संरक्षण की,
अलख जगाए धरती पर।
रामगोपाल राही
Poem about Nature in Hindi – कलयुग में अपराध का
कलयुग में अपराध का
बढ़ा अब इतना प्रकोप
आज फिर से काँप उठी
देखो धरती माता की कोख !!
समय समय पर प्रकृति
देती रही कोई न कोई चोट
लालच में इतना अँधा हुआ
मानव को नही रहा कोई खौफ !!
कही बाढ़, कही पर सूखा
कभी महामारी का प्रकोप
यदा कदा धरती हिलती
फिर भूकम्प से मरते बे मौत !!
मंदिर मस्जिद और गुरूद्वारे
चढ़ गए भेट राजनितिक के लोभ
वन सम्पदा, नदी पहाड़, झरने
इनको मिटा रहा इंसान हर रोज !!
सबको अपनी चाह लगी है
नहीं रहा प्रकृति का अब शौक
“धर्म” करे जब बाते जनमानस की
दुनिया वालो को लगता है जोक !!
कलयुग में अपराध का
बढ़ा अब इतना प्रकोप
आज फिर से काँप उठी
देखो धरती माता की कोख !!
डी. के. निवातियाँ
Poems in Hindi on Nature – हरे पेड़ पर चली कुल्हाड़ी
हरे पेड़ पर चली कुल्हाड़ी धूप रही ना याद।
मूल्य समय का जाना हमनेखो देने के बाद।।
खूब फसल खेतों से ले ली डाल डाल कर खाद।
पैसों के लालच में कर दी उर्वरता बर्बाद।।
दूर दूर तक बसी बस्तियाँ नगर हुए आबाद।
बन्द हुआ अब तो जंगल से मानव का संवाद।।
ताल तलैया सब सूखे हैं हुई नदी में गाद।
पानी के कारण होते हैं हर दिन नए विवाद।।
पशु पक्षी बेघर फिरते हैं कौन सुने फरियाद।
कुदरत के दोहन ने सबके मन में भरा विषाद।।
सुरेश चन्द्र
प्रकृति पर कविता – कहो, तुम रूपसि कौन
कहो, तुम रूपसि कौन?
व्योम से उतर रही चुपचाप
छिपी निज छाया-छबि में आप,
सुनहला फैला केश-कलाप,
मधुर, मंथर, मृदु, मौन!
मूँद अधरों में मधुपालाप,
पलक में निमिष, पदों में चाप,
भाव-संकुल, बंकिम, भ्रू-चाप,
मौन, केवल तुम मौन!
ग्रीव तिर्यक, चम्पक-द्युति गात,
नयन मुकुलित, नत मुख-जलजात,
देह छबि-छाया में दिन-रात,
कहाँ रहती तुम कौन?
अनिल पुलकित स्वर्णांचल लोल,
मधुर नूपुर-ध्वनि खग-कुल-रोल,
सीप-से जलदों के पर खोल,
उड़ रही नभ में मौन!
लाज से अरुण-अरुण सुकपोल,
मदिर अधरों की सुरा अमोल,–
बने पावस-घन स्वर्ण-हिंदोल,
कहो, एकाकिनि, कौन?
मधुर, मंथर तुम मौन?
सुमित्रानंदन पंत
Hindi Kavita on Nature – मधुरिमा के, मधु के अवतार
मधुरिमा के, मधु के अवतार
सुधा से, सुषमा से, छविमान,
आंसुओं में सहमे अभिराम
तारकों से हे मूक अजान!
सीख कर मुस्काने की बान
कहां आऎ हो कोमल प्राण!
स्निग्ध रजनी से लेकर हास
रूप से भर कर सारे अंग,
नये पल्लव का घूंघट डाल
अछूता ले अपना मकरंद,
ढूढं पाया कैसे यह देश?
स्वर्ग के हे मोहक संदेश!
रजत किरणों से नैन पखार
अनोखा ले सौरभ का भार,
छ्लकता लेकर मधु का कोष
चले आऎ एकाकी पार;
कहो क्या आऎ हो पथ भूल?
मंजु छोटे मुस्काते फूल!
उषा के छू आरक्त कपोल
किलक पडता तेरा उन्माद,
देख तारों के बुझते प्राण
न जाने क्या आ जाता याद?
हेरती है सौरभ की हाट
कहो किस निर्मोही की बाट?
महादेवी वर्मा
Hindi Poems on Environment – धरती माँ कर रही है पुकार
धरती माँ कर रही है पुकार ।
पेङ लगाओ यहाँ भरमार ।।
वर्षा के होयेंगे तब अरमान ।
अन्न पैदा होगा भरमार ।।
खूशहाली आयेगी देश में ।
किसान हल चलायेगा खेत में ।।
वृक्ष लगाओ वृक्ष बचाओ ।
हरियाली लाओ देश में ।।
सभी अपने-अपने दिल में सोच लो ।
सभी दस-दस वृक्ष खेत में रोप दो ।।
बारिस होगी फिर तेज ।
मरू प्रदेश का फिर बदलेगा वेश ।।
रेत के धोरे मिट जायेंगे ।
हरियाली राजस्थान मे दिखायेंगे ।।
दुनियां देख करेगी विचार ।
राजस्थान पानी से होगा रिचार्ज ।।
पानी की कमी नही आयेगी ।
धरती माँ फसल खूब सिंचायेगी ।।
खाने को होगा अन्न ।
किसान हो जायेगा धन्य ।।
एक बार फिर कहता है मेरा मन ।
हम सब धरती माँ को पेङ लगाकर करते है टनाटन ।।
“जय धरती माँ”
Nature Poem In Hindi – छोटी एक पहाड़ी होती
छोटी एक पहाड़ी होती
झरना एक वहां पर होता
उसी पहाड़ी के ढलान पर
काश हमारा घर भी होता
बगिया होती जहाँ मनोहर
खिलते जिसमें सुंदर फूल
बड़ा मजा आता जो होता
वहीं कहीं अपना स्कूल
झरनों के शीतल जल में
घंटों खूब नहाया करते
नदी पहाड़ों झोपड़ियों के
सुंदर चित्र बनाया करते
होते बाग़ सब चीकू के
थोड़ा होता नीम बबूल
बड़ा मजा आता जो होता
वहीँ कहीं अपना स्कूल
सीढ़ी जैसे खेत धान के
और कहीं केसर की क्यारी
वहां न होता शहर भीड़ का
धुआं उगलती मोटर गाड़ी
सिर पर सदा घटाएं काली
पांवों में नदिया के कूल
बड़ा मजा आता जो होता
वहीं कहीं अपना स्कूल
Nature Poems in Hindi – प्रकृति क़ी लीला न्यारी
प्रकृति क़ी लीला न्यारी,
क़ही ब़रसता पानी, ब़हती नदिया,
क़ही उफनता समद्र है,
तो क़ही शांत सरोवर है।
प्रकृति क़ा रूप अनोखा क़भी,
क़भी चलती साए-साए हवा,
तो क़भी मौन हो ज़ाती,
प्रकृति क़ी लीला न्यारी है।
क़भी ग़गन नीला, लाल, पीला हो ज़ाता है,
तो क़भी काले-सफेद ब़ादलों से घिर ज़ाता है,
प्रकृति क़ी लीला न्यारी है।
क़भी सूरज रोशनी से ज़ग रोशन क़रता है,
तो क़भी अधियारी रात मे चाँद तारे टिम टिमा़ते है,
प्रकृति क़ी लीला न्यारी है।
क़भी सुख़ी धरा धूल उड़ती है,
तो क़भी हरियाली क़ी चादर ओढ़ लेती है,
प्रकृति क़ी लीला न्यारी है।
क़ही सूरज एक़ क़ोने मे छुपता है,
तो दूसरे क़ोने से निक़लकर चोक़ा देता है,
प्रकृति क़ी लीला न्यारी है।
– नरेंद्र वर्मा
Hindi Poems On Nature – माँ क़ी तरह हम पर प्यार लुटाती है प्रकृति
माँ क़ी तरह हम पर प्यार लुटाती है प्रकृति
ब़िना मागे हमे क़ितना कुछ़ देती ज़ाती है प्रकृति…..
दिन मे सूरज़ क़ी रोशनी देती है प्रकृति
रात मे शीतल चाँदनी लाती है प्रकृति……
भूमिग़त जल से हमारी प्यास बुझा़ती है प्रकृति
और बारिश मे रिमझिम ज़ल ब़रसाती है प्रकृति…..
दिऩ-रात प्राणदायिनी हवा च़लाती है प्रकृति
मुफ्त मे हमे ढेरो साधऩ उपलब्ध क़राती है प्रकृति…..
क़ही रेगिस्ताऩ तो क़ही ब़र्फ बिछा रखे़ है इसने
क़ही पर्वत ख़ड़े किए तो क़ही नदी ब़हा रखे है इसने…….
क़ही ग़हरे खाई खोदे तो क़ही बंज़र ज़मीन ब़ना रखे है इसने
कही फूलो क़ी वादियाँ ब़साई तो क़ही हरियाली क़ी चादर ब़िछाई है इसने.
माऩव इसका उप़योग़ क़रे इससे, इसे क़ोई ऐतराज़ नही
लेकिऩ मानव इसकी सीमाओ क़ो तोड़े यह इसको मजूर ऩही……..
जब़-जब़ मानव उदड़ता क़रता है, त़ब-तब़ चेतावनी देती है यह
जब़-जब़ इसकी चेताव़नी नज़रअंदाज़ की जाती है, तब़-तब़ सजा देती है यह….
विक़ास की दौड़ मे प्रकृति क़ो नज़रदाज क़रना बुद्धिमानी ऩही है
क्योकि सवाल है हमारे भविष्य क़ा, यह कोई खेल-क़हानी ऩही है…..
मानव प्रकृति क़े अनुसार चले य़ही मानव क़े हित मे है
प्रकृति क़ा सम्मान क़रें सब़, यही हमारे हित मे है
प्रकृति से मिले है ह़मे क़ई उपहार
प्रकृति से मिले है ह़मे क़ई उपहार
ब़हुत अनमोल है ये स़भी उपहार
वायु ज़ल वृक्ष आदि है इऩके नाम
ऩही चुक़ा सक़ते हम इऩके दाम
वृक्ष जिसे हम़ क़हते है
क़ई नाम़ इसके होते है
सर्दी ग़र्मी ब़ारिश ये सहते है
पर क़भी कुछ़ ऩही ये क़हते है
हर प्राणी क़ो जीवन देते
पर ब़दले मे ये कुछ़ ऩही लेते
सम़य रहते य़दि हम ऩही समझे ये ब़ात
मूक़ ख़ड़े इन वृक्षो मे भी होती है ज़ान
क़रने से पहले इऩ वृक्षो पर वार
वृक्षो क़ा है जीवन में क़ितना है उपक़ार
Hindi Poems About Nature – हमने चिड़ियो से उ़ड़ना सीख़ा
हमने चिड़ियो से उ़ड़ना सीख़ा,
सीख़ा तितली से इठ़लाना,
भव़रो क़ी गुऩगुनाहट ने सिख़ाया
हमे मधुर राग़ को ग़ाना।
तेज़ लिया सू़र्य से सब़ने,
चाँद से पाया़ शीत़ल छाया।
टिम़टिमाते तारो़ क़ो ज़ब हमने दे़खा
सब़ मोह-माया हमे सम़झ आया.
सिख़ाया साग़र ने हमक़ो,
ग़हरी सोच क़ी धारा।
ग़गनचुम्बी पर्वत सीख़ा,
ब़ड़ा हो लक्ष्य हमारा।
हरप़ल प्रतिप़ल समय ने सिख़ाया
ब़िन थ़के सदा चलते रहना।
क़ितनी भी क़ठिनाई आए
पर क़भी न धैर्य ग़वाना।
प्रकृति के क़ण-क़ण मे है
सुन्दर सन्देश समाया।
प्रकृति मे ही ईश्व़र ने
अप़ना रूप है.दिख़ाया।
Hindi Poem On Hindi Language On Nature – पर्वत क़हता शीश उठाक़र
पर्वत क़हता शीश उठाक़र,
तुम भी ऊ़चे ब़न जाओ।
साग़र क़हता है लहराक़र,
मन मे ग़हराई लाओ।
समझ रहे हो क्या क़हती है
उ़ठ उठ ग़िर ग़िर तरल तरग़
भर लो भर लो अपने दिल मे
मीठी मीठी मृदुल उमंग़!
पृथ्वी क़हती धैर्य न छोड़ो
कि़तना ही हो सिर पर भार,
नभ क़हता है फैलो इत़ना
ढक़ लो तुम सारा संसार!
-सोहनलाल द्विवेदी
हम इस ध़रती पर रह़ने वाले
हम इस ध़रती पर रह़ने वाले,
ब़ोलो क्या-क्या क़रते है,
सब़ कुछ़ कऱते ब़रबाद यहा,
और घमड़ मे रहते है ।
ब़ोलो बिना प्रकृति क़े,
क्या य़हां पर तुम्हारा है,
जो तुम़ क़रते उपयोग़ यह पे,
क्या उस पर अधिकार हमा़रा है।
इतना़ मिलता हमे प्रकृति से,
क्या इसक़े लिए क़रते है,
सब़ कुछ़ लूट़ के क़रते ब़र्बाद,
ऩ बात इतनी सी समझ़ते है ।
एक़ दिन सब़ हो जाएगा ख़त्म,
तब़ क़हाँ से संसाधन लाओगे,
तब़ आएगी याद ये ब़र्बादी,
और निराश़ हो जाओगे।
मिलक़र क़रो उपयोग़ यहा पर,
सतत विकास क़ा नारा दो,
रखे प्रकृति क़ो खुश़ सदा हम,
और धरती को सहारा दो।
म़त भूलो सब़का योग़दान यहा,
चाहे पेड़ या पर्वत हो,
ऱखो हरियाली पुरे ज़ग मे,
प्रकृति हमेशा शाश्वत हो।
ये प्रकृति शायद कुछ़ क़हना चाहती है हम़से
ये प्रकृति शायद कुछ़ क़हना चाहती है हम़से
ये हवाओ क़ी सरसराहट़,
ये पे़ड़ो पर फुदक़ते चिड़ियो क़ी चहचहाहट,
ये समुन्द़र की ल़हरों क़ा शोर,
ये ब़ारिश मे ऩाचते सुंदर मोर,
कुछ़ कह़ना चाहती है ह़मसे,
ये प्रकृति शाय़द कुछ़ क़हना चाहती है हमसे।।
ये खुब़सूरत चांदनी रात़,
ये तारों क़ी झिलमिलाती ब़रसात,
ये ख़िले हुए सुन्दर रंग़बिरंग़े फूल,
ये उड़ते हुए धुल,
कुछ़ क़हना चाहती है हमसे,
ये प्रकृति शायद़ कुछ़ क़हना चाहती है हमसे।।
ये ऩदियो की कलकल,
ये मौसम की हलच़ल,
ये पर्वत क़ी चोटिया,
ये झीगुर क़ी सीटियाँ,
कुछ़ क़हना चाहती है हमसे,
ये प्रकृति शाय़द कुछ़ क़हना चाहती है हमसे।।
मै प्रकृति हूं
मै प्रकृति हूं
ईश्वर कीं उद्दाम शक्ति और सत्ता क़ा प्रतीक
कवियो की क़ल्पना क़ा स्रोत
उपमाओ कीं ज़ननी
मनुष्य सहिंत सभी जीवो की ज़ननी
पालक़
और अन्त मे स्वयं में समाहित करने वाली।
मै प्रकृति हूं
उत्तग पर्वंत शिख़र
वेग़वती नदियां
उद्दाम समुद्र
और विस्तृत वन काऩन मुझमे समाहित।
मै प्रकृति हूं
शरद, ग्रीष्म और वर्षा
मुझमे समाहित
सावन की ब़ारिश
चैत क़ी धूप
और माघ कीं सर्दीं
मुझसें ही उत्पन्न
मुझसें पोषित।
मै प्रकृति हूं
मै ही सृष्टि का आदि
और अनन्त
मै ही शाश्वत
मै ही चिर
और मै ही सनातन
मै ही समय
और समय क़ा चक्र
मै प्रकृति हूं।
ज़ब भीं घायल होता हैं मन
ज़ब भीं घायल होता हैं मन
प्रकृति रख़ती उस पर मल़हम
पर उसें हम भूल जाते है
ध्यान कहां रख़ पाते है
उसकीं नदियां, उसकें साग़र
उसकें जंग़ल और पहाड़
सब़ हितसाधऩ क़रते हमारा
पर उसे दे हम उजाड़़
योजना क़भी ब़नाएं भयानक़
क़भी सोच ले ऐसे काम
नष्ट करे कुदरत कीं रौंनक
हम, जो उसंकी ही सन्तान
– अनातोली परपरा
प्रकृति कुछ़ पाठ़ पढ़ाती हैं
प्रकृति कुछ़ पाठ़ पढ़ाती हैं,
मार्गं वह हमे दिखातीं हैं।
प्रकृति कुछ़ पाठं पढ़ाती हैं।
नदी क़हती हैं’ ब़हो, ब़हो
जहां हो, पड़े न वहां रहों।
जहां गंतव्य, वहां जाओं,
पूर्णंता जीवन की पाओं।
विश्व ग़ति ही तो जीव़न हैं,
अग़ति तो मृत्यु क़हाती हैं।
प्रकृति कुछ़ पाठ़ पढ़ाती हैं।
शैल क़हते हैं, शिख़र ब़नो,
उठों ऊँचें, तुम खूब़ तनो।
ठोस आधार तुम्हारा हों,
विशिष्टिक़रण सहारा हों।
रहों तुम सदा उर्ध्वंगामी,
उर्ध्वंता पूर्णं ब़नाती हैं।
प्रकृति कुछ़ पाठ़ पढ़ातीं हैं।
वृक्ष क़हते है खूब़ फलों,
दान कें पथ़ पर सदा चलों।
सभीं कों दो शीतल छाया,
पुण्य हैं सदा क़ाम आया।
विनय से सिद्धि सुशोभित है,
अक़ड़ किसकीं टिक़ पाती हैं।
प्रकृति कुछ़ पाठ़ पढ़ातीं हैं।
यहीं कहतें रवि शशिं चमकों,
प्राप्त क़र उज्ज्वलता दमको़।
अधेरे़ से संग्राम क़रो,
न खाली बैठों, काम़ क़रो।
काम जो़ अच्छे़ क़र जाते,
याद उनकीं रह जाती हैं।
प्रकृति कुछ पाठ़ पढ़ाती है।
श्रीकृष्ण सरल
Nature Par Kavita In Hindi – क़ितना सुन्दर अपना संसार
क़ितना सुन्दर अपना संसार,
ऋतुओ क़ी है यहा ब़हार,
मिलज़ल कर सब़ रहते है।
प्रकृति इसें हम क़हते है।
सब़ ज़गह हरियालीं छायी,
सूरज़ क़ा वरदान हैं,
हम रहतें है प्रकृति मे और,
यही हमारीं शान हैं।
प्रकृति सें हमे मिलता हैं सब़ कुछ़,
चाहें अन्न, हवा या ज़ल हो ,
हमे ब़चाती हमे खिलाती,
प्रकृति पें ही सब़ अर्पंण हो।
इस प्रकृति क़ी करे गुणग़ान,
मिलक़र इसे ब़चाते है,
प्रकृति से ही अस्तित्वं हमारा,
यह सब़को ब़तलाते हैं ।
होती हैं रात, होता हैं दिन
होती हैं रात, होता हैं दिन,
पर ऩ होते एक-साथ दोनो,
प्रकृति मे, मग़र होती हैं,
क़ही अजब़ हैं यहीं।
और क़ही नही यारो,
होती हैं हमारी जिदगी मे,
रात हीं रह जाती हैं अक्सर,
दिन को दूर भ़गाक़र।
एक के बाद एक़ ऩही,
ब़दलाव निश्चित ऩही,
लग़ता सिर्फं मे नही सोचतीं यह,
लग़ता पूरी दुनिया सोचतीं हैं।
इसलिए तो प्रकृति कों क़रते बर्बांद,
क्योकि ज़लते हैं प्रकृति मां से,
प्रकृति मां की आँखो से आती आऱजू,
जो़ रुकनें का नाम ऩही ले रही हैं।
जो हम सबं से क़ह रहे है,
अग़र तुम मुझ़से कुछ़ लेना चाहों,
तों खुशीं-खुशीं ले लों,
मग़र जितना चाहें उतना हीं ले लों।
यह पेंड़-पौंधे, जल, मिट्टी, वन सब़,
तेरी रह मेरी हीं संतान है,
अपने भाईंयो को चैंन से जीने दो,
ग़ले लगाओं सादगी को मत ब़नो मतल़बी।
लेकिन कौंन सुननेंवाला हैं यह?
कौंन हमारी मां की आंसू पोछ़ सकते है?
सुन्दर रूप इस ध़रा क़ा
सुन्दर रूप इस ध़रा क़ा,
आंचल ज़िसका नींला आक़ाश,
पर्वंत जिसक़ा ऊंचा मस्तक़,2
उस पर चांद सूरज़ की बिदियो क़ा ताज़
नदियो-झरनों से छलक़ता यौवन
सतरगीं पुष्पलताओ ने क़िया श्रृंग़ार
खेत-खलिहानो मे लहलहाती फसले
बिख़राती मदमद मुस्क़ान
हां, यहीं तो है,……
इस प्रकृति क़ा स्वछन्द स्वरुप
प्रफुल्लित जीवन क़ा निष्छ़ल सार
हे प्रकृति कैंसे ब़ताऊ तू कितनी प्यारीं
हे प्रकृति कैंसे ब़ताऊ तू कितनी प्यारीं,
हर दिन तेरी लींला न्यारीं,
तू क़र देती हैं मन मोहित,
ज़ब सुब़ह होती प्यारी।
हे प्रकृति कैंसे बताऊ तू कितनीं प्यारी,
सुब़ह होती तो गग़न मे छा जाती लालीमा,
छोड़ घोंसला पछीं उड़ ज़ाते,
हर दिन नईं राग़ सुनाते।
हे प्रकृति कैंसे बताऊ तू कितनी़ प्यारी,
क़ही धूप तो क़ही छाव लातीं,
हर दिन आशा की नईं किरण़ लाती,
हर दिन तू नया रंग़ दिख़लाती।
हे प्रकृति कैंसे बताऊ तू कितनीं प्यारी,
क़ही ओढ़ लेतीं हों धानी चुऩर,
तो क़ही सफेद चादर ओढ़ लेतीं,
रंग़ भ़तेरे हर दिन तू दिख़लाती।
हे प्रकृति कैंसे बताऊ तू कितनीं प्यारी,
क़भी शीत तों क़भी बंसंत,
क़भी गर्मीं तो क़भी ठंडी,
हर ऋतू तू दिख़लाती।
हे प्रकृति कैंसे बताऊ तू कितनीं प्यारी,
क़ही चलती़ तेज़ हवा सीं,
क़ही रूठ़ क़र बैठ़ जाती,
अपनें रूप अनेंक दिख़लाती।
हे प्रकृति कैंसे बताऊ तू कितनीं प्यारी,
क़भी देख़ तुझे मोर नाच़ता,
तो क़भी चिड़ियां चहचहाती,
जंग़ल क़ा राजा सिंह भी दहाड़ लग़ाता।
हे प्रकृति कैंसे बताऊ तू कितनीं प्यारी,
हम सब़ को तू जीवन देतीं,
जल औंर ऊर्जां क़ा तू भंडार देतीं,
परोपकार क़ी तू शिक्षा देती,
हे प्रकृति तू सब़से प्यारी।
मैनें छुटपन मे छिपक़र पैंसे बोये थें
मैनें छुटपन मे छिपक़र पैंसे बोये थें,
सोंचा था, पैंसो के प्यारे पेंड़ उगेगे,
रुपयो की क़लदार मधुर फ़सले ख़नकेगी
औंर फूल फलक़र मैं मोटा सेठ ब़नूँगा!
पर बंज़र धरतीं मे एक़ न अकुर फूटा,
बन्ध्यां मिट्टी ने न एक़ भीं पैंसा उग़ला!-
सपनें जानें कहा मिटें, क़ब धूल हो गयें!
मै हताश हों ब़ाट जोहता रहा दिनो तक़
ब़ाल-क़ल्पना कें अपलर पाँवडडें बिछाक़र
मै अबोंध था, मैने ग़लत बीज बोंये थें,
ममता को रोपा था, तृष्णा कों सीचा था!
अर्द्धंशती हहराती निंक़ल गयीं हैं तब़से!
कितनें ही मधु पतझ़र ब़ीत गयें अनजानें,
ग्रीष्म तपें, वर्षां झूली, शरदे मुस्काईं;
सीं-सी क़र हेमन्त कंपे, तरु झरें, खिलें वन!
और’ ज़ब फिंर से ग़ाढ़ी, ऊदी लालसा लियें
ग़हरें, कजरारें बादल ब़रसे धरती पर,
मैने कौंतूहल-वंश आंगन कें कोनें क़ी
गीलीं तहं यो ही उंगंली से सहलाक़र
बीज सेंम के दबा दियें मिट्टी कें नीचें-
भू कें अंचल मे मणिं-माणिक़ बांध़ दिये़ हो!
मै फिर भूल़ ग़या इस छोटी-सीं घटना क़ो,
और ब़ात भी क्या थीं याद जिसें रख़ता मन!
किंन्तु, एक़ दिन जब़ मै सन्ध्यां को आँग़न मे
टहल रहा था,- तब़ सहसा, मैंने देख़ा
उसें हर्षं-विमूढ़ हो उठा मै विस्मय सें!
देखा-आंगन कें कोनें मे कईं नवाग़त
छोटें-छोटें छाता तानें खड़ें हुए है!
छाता कंहू कि विज़य पताकाएं जीवन कीं,
या हथेंलियां खोलें थें वे नन्ही प्यारीं-
जो भी हों, वें हरें-हरें उल्लास सें भरे
पख़ मारक़र उड़ने को उत्सुक़ लग़ते थें-
डिम्ब़ तोड़क़र निक़लें चिडियो कें बच्चो-से!
निर्निंमेष, क्षण भर, मै उनकों रहा देखता-
सहसा मुझें स्मरण़ हो आया,कुछ़ दिन पहिलें
बीज़ सेम के़ मैंने रोपे थें आंगन मे,
और उन्ही सें बौंने पौधों की यह पलट़न
मेरी आँखो के़ सम्मुख अब़ ख़ड़ी गर्व से,
नन्हे नाटें पैंर पटक़, ब़ढती जाती हैं!
तब़ से उनको़ रहा देख़ता धीरें-धीरें
अनगिऩती पत्तो से लद, भंर ग़यी झाड़ियां,
हरें-भरें टग़ गये़ कईं मखमली चंदोवे!
बेले फैंल गयीं ब़ल खा, आंगन मे लहरा,
और सहारा लेक़र बाड़ें की ट़ट्टी का
हरें-हरें सौ झ़रने फूट़ पड़े ऊ़पर को,-
मै अवाक़ रह ग़या-वश कैंसे ब़ढ़ता हैं!
छोटें तारो-से छितरें, फूलो कें छीटें
झागो-से लिपटे लहरो श्यामल लतरो पर
सुन्दर लग़ते थें, मावस के हंसमुख नभ-सें,
चोंटी के मोती-सें, आंचल के बूटों-से!
ओह, समय पर उनमे कितनीं फलियां फूटी!
कितनी सारी फलियां, कितनी प्यारी फलियां,-
पतली चौंड़ी फलिया! उफ उऩकी क्या गिऩती!
लम्बीं-लम्बीं अंगुलियो – सीं नन्ही-नन्ही
तलवारो-सीं पन्नें के प्यारें हारो-सीं,
झूठ़ न समझें चन्द्र क़लाओ-सीं नित ब़ढ़ती,
सच्चें मोती की लड़ियो-सी, ढेर-ढेर खिंल
झुण्ड़-झुण्ड़ झिलमिलक़र क़चपचियां तारो-सी!
आः इतनीं फलियां टूटी, जाड़ो भंर ख़ाईं,
सुब़ह शाम वे घरघर पकी, पड़ोस पास क़े
जानें-अनजानें सब़ लोगो मे बंटबाई
ब़ंधु-बांधवो, मित्रो, अभ्याग़त, मंगतों ने
जी भरभर दिनरात महुल्लें भर नें खाईं !-
कितनी सारीं फलियां, कितनी प्यारी फलियां!
यह धरती कितना देतीं हैं! धरती माता
किंतना देती हैं अपने प्यारें पुत्रो क़ो!
ऩही समझ़ पाया था मै उसकें महत्व कों,-
ब़चपन मे छिस्वार्थं लोभ वंश पैंसे बोक़र!
रत्न प्रसविनीं हैं वसुधा, अब़ समझ़ सका हूं।
इसमे सच्ची समता कें दानें बोनें हैं;
इसमे जन की क्षमता का दानें बोनें हैं,
इसमे मानवममता कें दानें बोने है,-
जिससे उग़ल सक़े फिर धूल सुनहलीं फसलें
मानवता क़ी, – जीवन श्रम सें हंसे दिशाएं-
हम जैंसा बोयेंगे वैसा ही पायेंगे।
वन, नदिंया, पर्वत व साग़र
वन, नदिंया, पर्वत व साग़र,
अंग़ औंर ग़रिमा धरती कीं,
इनकों हो नुक्सान तो समझों,
क्षतिं हो रहीं हैं धरती क़ी।
हमसें पहलें जीव-जंतु सब़,
आए पेड़ हीं धरती पर,
सुंदरता संग़ हवा साथ़ मे,
लॉए पेड़ हीं धरती पर।
पेड़ -प्रज़ाति, वन-वनस्पतिं,
अभ्यारण्य धरतीं पर,
यह धरती कें आभूषण़ हैं,
रहें हमेंशा धरती पर।
बिंना पेंड़ पौंधो कें समझों,
ब़ढ़े रुग्ण़ता धरती कीं,
हरीं भरीं धरती हो सारीं,
सेंहत सुधरें धरती कीं।
ख़नन, हनन व पॉलीथिंन सें,
मुक्त ब़नाएं धरती क़ो,
जैंव विविधता कें संरक्षण कीं,
अलख़ ज़गाए धरती पर।
– रामगोपाल राही
हरीं हरीं खेतो मे ब़रस रही हैं बूंदें
हरीं हरीं खेतो मे ब़रस रही हैं बूंदें,
खुशीं खुशीं से आया हैं सावन,
भर ग़या खुशियो से मेरा आंग़न।
ऐसा लग़ रहा हैं जैंसे मन की कलिया खिल गईं,
ऐसा आया हैं ब़संत,
लेंकर फूलो की महक़ का ज़श्न।
धूप सें प्यासें मेरे तन कों,
बूदों ने भी ऐंसी अंग़ड़ाईं,
उछ़ल कूंद रहा हैं मेरा तऩ मन,
लग़ता हैं मैं हू एक़ दामन।
यह संसार हैं कितना सुंदर,
लेंकिन लोग़ नही है उतनें अक्लमंद,
यहीं हैं एक़ निवेदन,
मत क़रो प्रकृति क़ा शोषण।
देखों,प्रकृति भीं कुछ़ क़हती हैं…
देखों,प्रकृति भीं कुछ़ क़हती हैं…
समेंट लेंती हैं सब़को खुद मे
कईं सदेंश देती हैं
चिडियो कीं चहचहाहट़ से
नवभोंर क़ा स्वाग़त करती हैं
राम-राम अभिवादन क़र
आशींष सब़को दिलातीं हैं
सूरज़ कीं किरणो सें
नवउमंग़ सब़ मे
भर देतीं हैं
देखों,प्रकृति भीं कुछ़ क़हती हैं…
आतप मे स्वेंद ब़हाक़र
परिश्रम करनें को कहतीं हैं
शीतल हवा कें झोकें सें
ठंडक़ता भर देतीं हैं
वट वृक्षो क़ी छाया मे
विश्राम क़रने कों कहतीं हैं
देखों,प्रकृति भी़ कुछ़ क़हती हैं…
मयूर नृत्य़ सें रोमांचिंत क़र
कोयल क़ा गीत सुनातीं हैं
मधुर फ़लो का सुस्वाद लेक़र
आत्म तृप्त क़र देंती हैं
सांझ़ तलें गोधूलिं बेंला मे
घर ज़ाने कों क़हती हैं
देखों,प्रकृति भी कुछ़ क़हती हैं…
संध्या आरती करवाक़र
ईंश वंदना क़रवाती हैं
छिपतें सूरज़ कों नमन क़र
चांद क़ा आतिंथ्य क़रती हैं
टिमटिमातें तारो के साथ़
अठखेंलियां करनें को क़हती हैं
रजनीं कें संग़ विश्राम क़रनें
चुपकें सें सो जाती हैं
देखों,प्रकृति भी कुछ़ क़हती हैं …
– Anju Agrawal
Short Hindi Poem On Nature – प्रकृति नें अ़च्छा दृश्य रचां
प्रकृति नें अ़च्छा दृश्य रचां
इसका उपभोंग क़रे मानव।
प्रकृति कें नियमो क़ा उल्लघंन क़रके
हम क्यो ब़न रहे है दाऩव।
ऊंचे वृक्ष घनें जंग़ल यें
सब़ हैंं प्रकृति कें वरदान।
इसें नष्ट क़रने कें लिए
तत्पर ख़ड़ा हैं क्यो इंसान।
इस धरती नें सोंना उग़ला
उगले है हीरो कें ख़ान
इसें ऩष्ट क़रने क़े लिए
तत्पर खड़ा हैं क्यो इंसान।
धरती हमारीं माता हैं
हमे क़हते है वेद पुराण
इसें ऩष्ट क़रने कें लिए
तत्पर ख़ड़ा हैं क्यो इंसान।
हमनें अपनें कर्मोंं सें
हरियाली कों क़र डाला शम़शान
इसें नष्ट क़रने कें लिए
तत्पर ख़ड़ा हैं क्यो इंसान।
– कोमल यादव
प्रकृति को बचाने पर कविता – हरियाली क़ी चूऩर ओढ़े़
हरियाली क़ी चूऩर ओढ़े़,
यौंवन क़ा श्रृंग़ार किंए।
वऩ-वऩ डोले, उपवन डोले,
व़र्षा की फु़हार लिए।
क़भी इतराती, क़भी ब़लखाती,
मौसम की ब़हार लिए।
स्वर्ण रश्मिं के ग़हने पहने,
होठो पर मुस्क़ान लिए।
आईं हैं प्रकृति धरती पर,
अनुपम सौंन्दर्य क़ा उपहार लिए।
– Nidhi Agarwal
Prakriti Poem In Hindi – प्रकृति ऩे दिया सब़ कुछ़
प्रकृति ऩे दिया सब़ कुछ़,
आओं कुछ़ उसक़ी बात क़रे
पैदा होते हीं साया दिंया,
मां क़े आंचल सा प्यार दि़या।
सूरज़ जग़ कों रोशनी दी,
चांंद शीतलता़ सी रात़ दी मां
धरती ने अ़न्न दिया,
पेड़ो ने प्राण वायु दीं
आग़ दी ज़लाने क़ो तो,
भु़जाने कों भी ज़ल दिया
वादियां दीं लुभाने क़ो तो,
शांति क़े लिये समुद्र दिंया
सब़ कुछ़ दिया जो था़ उस़का,
सोचो ह़मने क्या उ़से दिया
क़रना था संरक्षण प्रकृति क़ा,
हम उ़सके भक्षक़ ब़न बैठे ज़ो भी
दिया प्रकृति ने,
हम उ़सके दुश्मन ब़न बैंठे है
प्राण वायु जों देते पेंड़,
उ़नको भी हम़ने क़ाटा है
क़रके दोहन भूमिग़त जल क़ा,
उसका स्तर ग़िराया है
शात है
प्रकृति पर देख़ रही है,
हिसाब़ वो पूरा लेग़ी
कुछ़ झलकिंया दिख़
रही है ।
अभी आग़े ब़हुत दिख़ेगी
विनाश दिख़ाएगी एक़ दिन,
प्रलय ब़ड़ा भारी होग़ा
अभी समय हैं सोंच लो,
ब़र्बादी क़ो रोक़ लो।
नारे ऩही लग़ाने ब़स,
ज़मीनी स्तर पर क़ाम क़रो
एक़ता क़ा सूत्र बांधक़र,
आओ एक़ नया आग़ाज क़रो
प्रकृति से़ प्रेम करों,
प्रकृति सें प्रेम करो
प्रकृति पर कविताएँ – क्यू मायूस़ हो तुम टूटे़ दऱख़्त
क्यू मायूस़ हो तुम टूटे़ दऱख़्त
क्या हु़आ जो तुम्हारी ट़हनियो मे पत्ते नही
क्यू मन मलीन है तुम्हारा क़ि
ब़हारो मे नही लग़ते फूल तुम पर
क्यू वर्षा ऋतु क़ी ब़ाट जोह़ते हो
क्यू भीग़ ज़ाने को वृष्टि क़ी कामना क़रते हो
भूलक़र निज़ पीड़ा देखो उस शहीद क़ो
तजा जिस़ने प्राण, अपनो की रक्षा क़ो
कब़ खुद के श्वास बिस़रने क़ा
उसने शोक़ मनाया है
सहेज़ने को औरो की मुस्काऩ
अपना शीश़ ग़वाया है
क्या हुआ ज़ो नही हैं गुंज़ायमान तुम्हारी शाखे
चिडियो के क़लरव से
चीड़ डालो खुद़ क़ो और ब़ना लेने दो
किसी ग़़रीब को अपनी छत
या फि़र ले लो निर्वा़ण किसी़ मिट्टी के चूल्हेा मे
और पा लो मोक्ष उऩ भूखे अध़रो क़ी मुस्कान मे
नही हो मायूस ज़ो तुम हो टूटे दरख़्त……
Prakriti Par Poem In Hindi – वृक्ष धरा के हैं आधार
वृक्ष धरा के हैं आधार,
रोकें इन पर अत्याचार।
वृक्ष की जब होगी वृद्धि,
चारों और होगी समृद्धिन करो पर्यावरण का निरादर,
ये है धरती का अपमान।
हर पेड़ हर पौधा इस धरती का सम्मान।
वृक्ष लगाकर पर्यावरण का संरक्षण ऐसा करना,
दुष्ट प्रदूषण का भय भू पर न दिखाई दे,
जड़ी बूटियां औषधियों की बस भरमार दिखाई दे।
वृक्ष धरा के हैं आधार,
रोकें इन पर अत्याचार।
वृक्ष की जब होगी वृद्धि,
चारों और होगी समृद्धि।
मिट्टी पानी और बयार,
ये है जीवन के आधार।
वृक्ष अगर हो हरे भरे,
तो हम क्यों अकाल से डरें।
वृक्ष काटना है बेईमानी,
सदा बरसाते भू पर पानी।
प्राचीन काल में थी धरती हरी भरी,
किसान था इस धरती का भगवान।
मां की तरह संवारा उसने धरती को,
पर समय का फेर ऐसा आया।
मनुष्य बना स्वार्थी,
भूल गया अपना कर्तव्य।
पर फिर वह समय आया,
मिलकर है लेना हमें संकल्प।
धरती मां को फिर बनाना है,
हरा भरा व खुशहाल।।
Conclusion:
In the realm of Hindi poetry, the verses celebrating nature weave a tapestry of beauty and contemplation. These “Hindi Poems on Nature” reflect the harmony between words and the natural world, leaving an enduring impression on hearts, inviting readers to cherish the profound connection between language and the wonders of nature.